सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी जब चौथे गुरु के अखाड़े में शामिल हुए, तो परंपरा के अनुसार उन्हें छोटे-छोटे काम करने को दिए गए। इनमें जूठे बर्तन साफ करना भी शामिल था। अर्जुन देव को जो भी काम बताया जाता उसे वे बड़ी लगन से पूरा करते थे। छोटे-छोटे काम करने में भी उन्होंने कभी संकोच अनुभव नहीं किया और न इससे उनमें कभी हीन भावना ही पैदा हुई।
अन्य शिष्य सत्संग का आनंद लेते थे, परन्तु वे आधी रात तक सभी छोटे-छोटे कामों को पूरा करके ही विश्राम करते थे। अन्य लोगों में यह धारpmणा घर कर गई थी कि गुरुजी अर्जुन देव को तुच्छ समझते हैं। परन्तु वे लोग यह नहीं जानते थे कि गुरु में आदमी की सच्ची परख है और वे मानव सेवा को सबसे अधिक महत्व देते हैं।
समाधि लेने से पूर्व गुरु जी ने काफी सोच-विचार के बाद अपने शिष्यों में से एक को उत्तराधिकारी चुन लिया और उसके नाम अधिकार पत्र लिखकर बक्से में बंद कर दिया। चौथे गुरु की मृत्यु के बाद बक्सा खोलकर वह अधिकार पत्र देखा गया तो पता चला कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी अर्जुन देव को बनाया था। अन्य शिष्यों ने तभी सेवा के महत्व को समझा। पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने अपने गुरु की आशाओं के अनुरूप कार्य करके काफी ख्याति अर्जित की।